Mahabharat की कथा
प्राचीन भारत के दो प्रमुख संस्कृत महाकाव्य हैं। इनमें से एक है महाभारत और दूसरे को रामायण कहा जाता है। Mahabharat हिंदू संस्कृति का निर्माण करने वाले महत्वपूर्ण घटकों में से एक है, और हिंदू धर्म के विकास पर जानकारी का एक प्रमुख स्रोत है। यह हिंदुओं के लिए एक धार्मिक ग्रंथ माना जाता है।
Mahabharat भारत का अनुपम, धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ है। यह हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथो में से एक है।
100,000 छंदों, 200,000 पंक्तियों और 1.8 मिलियन शब्दों के साथ यह दुनिया की सबसे लंबी ज्ञात कविता है। यह अद्भुत ग्रंथ वेद व्यास द्वारा लिखा गया था जिन्होंने तीन वर्षों में उपदेशात्मक और पौराणिक कविता के अपने संस्करण की रचना की थी। यह पाठ चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में लिखा गया था।
महाभारत द्वापरयुग में भाइयों के बीच सम्पत्ति के लिए लड़ा गया युद्ध था। एक ओर धृतराष्ट्र के सौ पुत्र कौरव थे वहीं दूसरी ओर पांडु तथा माद्री से उत्पन्न पाँच पुत्र पांडव थे। कौरवों का पक्ष अधर्म का था और पांडवों का पक्ष धर्म का कहा गया है।
Mahabharata के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है, और इसे लिखने का श्रेय भगवान गणेश को जाता है, इसे संस्कृत भाषा में लिखा गया था। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं।
इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं।
महाभारत की विशालता और दार्शनिक गूढता न केवल भारतीय मूल्यों का संकलन है बल्कि हि.न्दू धर्म और वैदिक परम्परा। काभी सार है। Mahabharat की विशालता महानता और सम्पूर्णता का अनुमान उसके प्रथमपर्व में उल्लेखित एक पंक्ति से लगाया जा सकता है।
जो यहाँ (Mahabharat में) है वह आपको संसार में कहीं न कहीं अवश्य मिल जायेगा, जो यहाँ नहीं है वो संसार में आपको अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा।
जिसका भावार्थ है,
Mahabharat द्वापरयुग मे भाइयों के बीच सम्पत्ति के लिए लड़ा गया युद्ध था। एक ओर धृतराष्ट्र और गांधारी के सौ पुत्र कौरव थे वहीं दूसरी ओर पांडु और कुंती तथा माद्री से उत्पन्न पाँच पुत्र पांडव थे। कौरवों का पक्ष अधर्म का था एवं पांडवों का पक्ष धर्म का कहा गया है। सम्पत्ति के साथ ही यहाँ एक प्रसंग का उल्लेख करना अनिवार्य जान पड़ता है कि कौरवों ने पांडवों को न केवल वनवास भेजा बल्कि उन्हें मारने की भी योजनाएं बनाईं।
किन्तु पांडवों का पक्ष धर्म का था एवं धर्म के साथ परमात्मा सदैव रहते हैं होते हैं सो वे सुरक्षित रहे। धृतराष्ट्र कभी राजा नहीं बन सकता क्योंकि वह जन्म से ही नेत्रहीन थे इसलिए वह राजा कभी नहीं बन सके इसलिए उनकी जगह पर पाण्डु को राजा बनाया गया था. किन्तु एक बार वन में आखेट खेलते हुए पाण्डु के बाण से एक मैथुनरत मृग रुपधारी ऋषि की मृत्यु हो गयी जिससे उन्हें एक भयंकर श्राप लग गया…इसी कारण राजा पांडू ने नेत्रहीन धृतराष्ट्र को हस्तिनापुर का राज सिंहासन दे दिया और स्वयं पत्नी के साथ वन में रहने लगे।
किन्तु मृत्यु से पुत्र पूर्व राजा पाण्डु के कहने पर ही देवी कुन्ती ने दुर्वासा ऋषि के दिये मन्त्र से यमराज को आमन्त्रित कर उनसे युधिष्ठिर, वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन को उत्पन्न किया और माद्री से अश्विनी कुमारों द्वारा नकुल और सहदेव की उत्पत्ति हुई, किन्तु उस समय तक किसी को भी ये पता नहीं था कि देवी कुन्ती ने विवाह से पहले ही सूर्य के अंश से कर्ण को जन्म दिया था और लोकलाज के भय से कर्ण को गंगा नदी में बहा दिया था..जिसके बाद धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ ने उसे बचाकर उसका पालन पोषण किया।
कर्ण की शुरू से ही रुचि युद्धकला मे थी इसलिए द्रोणाचार्य के रोकने के बाद भी उसने परशुराम से शिक्षा प्राप्त की थी गांधार नरेश का पुत्र शकुनी था और उसके छल कपट के कारण दुर्योधन बचपन में कई बार पांडव को मारने का प्रयत्न किया था और युवावस्था में भी जब युधिष्ठिर को युवराज बना दिया गया तो लाख के बने हुए घर लाक्षाग्रह में पाण्डवों को भेजकर उन्हें आग से जलाने का प्रयत्न किया गया.. किन्तु विदुर के सहायता और श्री कृष्ण के सहायता के कारण से पांडव उस जलते हुए गृह से बाहर निकल आये थे।
द्रौपदी स्वयंवर
इसके बाद पाण्डव वहाँ से एकचक्रा नगरी गये और मुनि का वेष बनाकर एक ब्राह्मण के घर में निवास करने लगे, फिर व्यास जी के कहने पर वे पांचाल राज्य में गये जहाँ द्रौपदी का स्वयंवर होनेवाला था। वहाँ एक के बाद एक सभी राजाओं एवं राजकुमारों ने मछली पर निशाना साधने का प्रयास किया किन्तु सफलता हाथ न लगी।
और फिर इसी के बाद अर्जुन ने जलपत्र में प्रतिबिम्ब को देखते हुये एक ही बाण से मत्स्य को भेद डाला और तब जाकर द्रौपदी ने अर्जुन के गले में वरमाला डाल दीं ।
माता कुन्ती के वचनानुसार पाँचों पाण्डवों ने द्रौपदी को पत्नीरूप में स्वीकार किया था। द्रौपदी के स्वयंवर के समय दुर्योधन के साथ ही द्रुपद, धृष्टद्युम्न और अनेक लोगों को सन्देह हो गया था कि वह पाँच ब्राह्मण और कोंई नहीं, पाण्डव ही हैं।
इसलिए पांडवों की परीक्षा करने के लिये द्रुपद ने उन्हें अपने राज भवन में बुलाया…राज महल में द्रुपद और धृष्टद्युम्न ने पांडवों को पहले राजकोष दिखाया…किन्तु पाण्डवों ने वहाँ रखे सोने चांदी और रत्न आभूषणों में कोई भी रूचि नहीं दिखाई…किन्तु जब वे शस्त्रागार में गये तो वहाँ रखे अस्त्र-शस्त्रों में उन सभी ने बहुत ही अधिक रुचि दिखायी और अपनी पसन्द के शस्त्रों को अपने पास रख लिया..उनके क्रिया-कलाप से द्रुपद को विश्वास हो गया कि ये ब्राह्मणों के रूप में पाण्डव ही हैं।
द्रौपदी स्वयंवर से पहले विदुर को छोड़कर सभी पाण्डवों को मृत समझने लगे थे और इस कारण धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को हस्तिनापुर का युवराज बना दिया। गृहयुद्ध के संकट से बचने के लिए युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र द्वारा दिए खण्डहर स्वरुप खाण्डव वन को आधे राज्य के रूप में स्वीकार कर लिया। वहाँ अर्जुन ने श्रीकृष्ण के साथ मिलकर समस्त देवताओं को युद्ध में परास्त करते हुए खाण्डव वन को जला दिया और इन्द्र के द्वारा की हुई वृष्टि का, अपने बाणों के छत्राकार बाँध से निवारण करके अग्नि देव को तृप्त कर दिया।
इसी के बाद अर्जुन ने अग्निदेव से दिव्य गाण्डीव धनुष और उत्तम रथ और इतिश्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र प्राप्त किया इन्द्र अपने पुत्र अर्जुन की वीरता देखकर प्रसन्न हुए और उन्होंने खांडव प्रस्थ के वनों को हटा दिया उसके बाद पाण्डवों ने श्रीकृष्ण के साथ मय दानव की सहायता से उस शहर को सुन्दर और अनुपम बना दिया इन्द्र के कहने पर ही भगवान शिल्पी विश्वकर्मा और मय दानव ने मिलकर खाण्डव वन को इन्द्रपुरी जितने भव्य नगर में निर्मित कर दियाजो इन्द्रप्रस्थ कहलाया।
पाण्डवों ने सम्पूर्ण दिशाओं पर विजय पाते हुए प्रचुर सुवर्ण राशि से परिपूर्ण राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान करवाया परंतु उनका वैभव, दुर्योधन के लिये असहनीय हो गया इसीलिए शकुनि, कर्ण और दुर्योधन आदि ने युधिष्ठिर के साथ जुए में सम्मिलित होकर उसके भाइयो, द्रौपदी और उनके राज्य को कपट पूर्ण हँसते-हँसते जीत लिया और कुरु राज्य सभा में देवी द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का प्रयास किया।
लेकिन गांधारी ने आकर ऐसा होने से रोक दिया किंतु फिर पुत्र मोहि धृतराष्ट्र ने एक बार फिर से, दुर्योधन की प्रेरणा से उन्हें जुआ खेलने की आज्ञा दी और यह तय हुआ कि एक ही दांव में जो भी पक्ष हार जाएगा वे मृगचर्म धारण कर बारह वर्ष वनवास करेंगे और एक वर्ष अज्ञातवास मे रहेंगे अगर 12 वर्ष के वनवास से पहले भी यदि उन्हें पहचान लिया गया तो फिर से बारह वर्ष का वनवास भोगना होगा।
इस प्रकार पुन: एक बार जुए में परास्त होकर युधिष्ठिर, अपने भाइयों सहित वन में चले गये और पांडव का 12 वर्ष बीत जाने के बाद एक वर्ष का अज्ञातवास पूर्ण करने के लिए वह विराटनगर चले गए विराटनगर में पांडव को कोई नहीं जानता था।
जब कौरव, विराट को हराकर ले जाने लगे, तब ने अर्जुन उन्हें परास्त कर दिया लेकिन उसी समय कौरवों ने पाण्डवों को पहचान लिया किन्तु समय के अनुसार उनका अज्ञातवास तब तक पूरा हो चुका था लेकिन फिर भी 12 वर्षो के ज्ञात और एक वर्ष के अज्ञात वास को पूरा करने के बाद भी कौरव इस बात को नहीं मानते हैं ।
और पाण्डवों को उनका राज्य देने से मना कर दिया स्वयं के साथ अन्याय होता देख धर्मराज युधिष्ठिर, सात अक्षौहिणी सेना के स्वामी होकर कौरवों के साथ युद्ध करने को तैयार हो गए किन्तु कृष्ण इस युद्ध को टालना चाहते थे इसलिए वे सबसे पहले दुर्योधन के पास दूत बनकर गये..कृष्ण ने ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी राजा दुर्योधन से कहा कि तुम युधिष्ठिर को आधा राज्य दे दो या केवल पाँच ही गाँव ही देकर युद्ध को टाल दो।
सुझाव प्रस्ताव लेकर पहुंचे श्री कृष्णा हस्तिनापुर
श्रीकृष्ण की बात सुनकर दुर्योधन ने पाण्डवों को सुई की नोक के बराबर भी भूमि देने से मना कर दिया और कृष्ण को ही बंदी बनाना चाहा , तब श्रीकृष्ण ने अपना विश्व रूप दिखाकर दुर्जनों को भयभीत कर दियातब पर भी यह युद्ध नहीं टला तो अंत में श्री कृष्ण ने पांडवों को युद्ध करने का आदेश दिया। किन्तु जब युधिष्ठिर और दुर्योधन की सेनाएँ कुरुक्षेत्र के मैदान में आमने सामने जा डटीं तो अपने विपक्ष में पितामह भीष्म तथा आचार्य द्रोण आदि गुरुजनों को देखकर अर्जुन युद्ध से विरक्त हो गये।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र में दिया गीता का उपदेश
तब श्रीकृष्ण ने युद्ध क्षेत्र में अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया “पार्थ! भीष्म आदि गुरुजन शोक के योग्य नहीं हैं…मनुष्य का शरीर विनाशशील है, किंतु आत्मा का कभी नाश नहीं होता.. यह आत्मा ही परब्रह्म है। ‘मैं ब्रह्म हूँ’ इस प्रकार तुम उस आत्मा का अस्तित्व समझो कार्य की सिद्धि और असिद्धि में समान भाव से रहकर कर्मयोग का आश्रय लेकर क्षत्रिय धर्म का पालन करो।
इस प्रकार श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन को ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग का ज्ञान देते हुए बताया तब अर्जुन के अज्ञान रुपी नेत्र बंद होकर ज्ञान रुपी चक्षु खुल गए और तब जाकर अर्जुन रथ पर सवार होकर युद्ध के लिये शंख नाद कर दी। दुर्योधन की सेना में सबसे पहले पितामह भीष्म सेनापति हुए। पाण्डवों के सेनापति धृष्टद्युम्न थे इन दोनों में भारी युद्ध छिड़ गया.. भीष्म पितामह सहित कौरव के पक्ष से युद्ध करते करते पाण्डव-पक्ष के सैनिकों पर प्रहार करने लगे और शिखण्डी आदि पाण्डव- पक्ष के वीर कौरव-सैनिकों को अपने बाणों का निशाना बनाने लगे।
कौरव और पाण्डव-के सेना का वह युद्ध, अत्यधिक भयानक हो चुका था। भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया एक वरदान के कारण भीष्म की मृत्यु उनकी इच्छा के अधीन थी।इसलिए श्रीकृष्ण के सुझाव पर पाण्डवों ने भीष्म से ही उनकी मृत्यु का उपाय पूछ लिया।
फिर इसके बाद भीष्म पितामह की मृत्यु का कारण बना वो अर्ध पुरुष जिसका नाम शिखंडी था। युद्ध के दसवे दिन अर्जुन ने शिखंडी को अपने रथ पर बिठाया और शिखंडी को सामने देख कर भीष्म पितामह ने अपना धनुष त्याग दिया..और फिर इसी के बाद अर्जुन ने अपनी बाण से भीष्म पितामह को बाणों कि शय्या पर सुला दिया भीष्म पितामह के मरने पर शिखंडी का भी उनसे पूर्व जन्म का प्रतिशोध पूरा हो गया था किन्तु किसी को क्या पता था कि अप्रत्यक्ष रूप से महा-भारत के युद्ध का संचालन स्वयं श्री कृष्णा ही कर रहे थे।
भीष्म पितामह को जब अर्जुन ने घायल कर दिया था तब गुरु ने, कौरवों की ओर से सेनापति पद का भार ग्रहण किया..फिर से दोनों पक्षो में बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। मतस्य नरेश विराट और द्रुपद आदि राजा द्रोणरूपी समुद्र में डूब गये थे। लेकिन जब युधिष्ठिर ने कृष्ण के आदेश पर द्रोनाचार्य को यह विश्वास दिला दिया कि अश्वत्थामा मारा गया तो आचार्य द्रोण ने अस्त्र शस्त्र त्यागकर योग समाधि के द्वारा अपने प्राण त्याग दिए।
आचार्य द्रोण वध के बाद कर्ण कौरव सेना का कर्णधार हुआ। कर्ण और अर्जुन में भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्रों से युक्त महा भयानक युद्ध हुआ, जो देवासुर-संग्राम को भी मात करने वाला था…कर्ण और अर्जुन के युद्ध में कर्ण ने अपने बाणों से अर्जुन के बहुत-से वीरों का नष्ट और घायल कर डाला। हालांकि युद्ध गतिरोध पूर्ण हो रहा था। लेकिन कर्ण अत्यधिक तेजी से आगे बढ़ रहा था।
वह अपने बालों से अधिक सैनिक को घायल कर रहा था जब तभी जाकर उसके रथ का एक पहिया धरती में धँस गया…गुरु परशुराम के शाप के कारण कर्ण स्वयं को दैवीय अस्त्रों के प्रयोग में भी असमर्थ पाकर रथ के पहिए को निकालने के लिए नीचे उतरता है…तब श्रीकृष्ण, अर्जुन को कर्ण के द्वारा किये अभिमन्यु वध, कुरु सभा में द्रोपदी के साथ अपमान और उसकी कर्ण वध करने की प्रतिज्ञा याद दिलाकर उसे मारने को कहते है।और फिर इसी के बाद अर्जुन अंजलिकास्त्र से कर्ण का सिर धड़ से अलग कर देता है।
इसके बाद राजा शल्य कौरव-सेना के सेनापति हुए, किंतु वे युद्ध में आधे दिन तक ही टिक पाते हैं.. क्यूंकि दोपहर होते-होते युधिष्ठिर के हाथों उनका वध हो जाता है…दुर्योधन की सारी सेना के मारे जाने पर अन्त में उसका भीम के साथ गदा युद्ध होता है.. दुर्योधन अत्यधिक बलशाली था इसलिए भीम उसे नहीं मार पा रहे थे तब यहाँ पर भी कृष्ण के संकेत पर भीम ने दुर्योधन की जांघ पर प्रहार करते है और उसे मार देते हैं।
इसी का प्रतिशोध लेने के लिये अश्वत्थामा ने रात्रि में पाण्डवों की एक अक्षौहिणी सेना, और द्रौपदी के पाँचों पुत्रों की हत्या करके उसके पांचाल देशीय बन्धुओं तथा धृष्टद्युम्न, सबका वध कर दिया। तब अर्जुन ने अश्वत्थामा को परास्त करके उसके मस्तक की मणि निकाल ली.. जिसके परिणाम स्वरुप अश्वत्थामा ने उत्तरा (उत्तरा अर्जुन की पुत्रवधु और अभिमन्यु की अर्धांगिनी थी) के गर्भ पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर किया उत्तरा का गर्भ, अश्वत्थामा के अस्त्र से प्राय दग्ध हो गया था।
किंतु भगवान श्रीकृष्ण ने उसको पुन: जीवन-दान दिया.. उत्तरा का वही गर्भस्थ शिशु आगे चलकर राजा परीक्षित के नाम से विख्यात हुआ। इस युद्ध के अंत में कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा तीन कौरव पक्षिय और पाँच पाण्डव, सात्यकि तथा श्रीकृष्ण ये सात पाण्डव पक्षिय वीर जीवित बचे। तत्पश्चात् युधिष्ठिर राजसिंहासन पर आसीन हुए।
Mahabharat का सार
Mahabharat अश्वमेधिकापर्व में युधिष्ठिर और भगवान श्रीकृष्ण के बीच बातचीत होती है। जिसमें कान्हा युधिष्ठिर को बताते हैं कि सुखी जीवन का रहस्य क्या है। मृत्यु के बाद कौन सा मनुष्य स्वर्ग या नरक को प्राप्त करता है। युधिष्ठिर भगवान कृष्ण से पूछते हैं कि लोग एक सुखी जीवन कैसे जीते हैं। वे कौन हैं जो निधन के बाद मोक्ष प्राप्त करते हैं। श्री कृष्णा दुर्योधन के उत्तर देते हुए कहते हैं ऐसे व्यक्ति को आसानी से मोक्ष प्राप्त होता है जो सदा सत्य और धर्म के मार्ग पर चलते हैं।
Mahabharat की शैली महाकाव्य कविता है, और इस शैली के तत्वों में एक या एक से अधिक पात्रों की वीरतापूर्ण यात्रा, शानदार रोमांच और अलौकिक कार्रवाई शामिल है। यह बिंब, अनुप्रास और लय से युक्त एक कथात्मक कविता है। यह शक्तिशाली पाठ मानवता के शक्तिशाली दर्शन और दिव्यता की भयानक घटनाओं को सामने लाता है जो पाठकों के लिए विस्मयकारी और सम्मोहक हैं। इसमें हिंदू इतिहास, भक्ति और धार्मिक पाठ और दार्शनिक चिंतन के अंश भी शामिल हैं।