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रामायण || Ramayana : A Journey Through Indian Mythology

The Epic Tale of  Ramayana: A Journey Through Indian Mythology


रामायण महाकाव्य के बारे में हम सभी जानते हैं हमारे देश में Ramayana का लोगों के जीवन में बड़ा ही गहरा प्रभाव है । हमारे देश में रामायण को पढ़ते हैं , पूजते हैं और ज्ञान प्राप्त करते हैं ।

Ramayana में राम भगवान के जीवन के बारे में यह बताया गया है कि राम भगवान ने अपने जीवन में हमेशा सच्चाई का साथ दिया और उनकी जीत हुई।

क्षत्रियों के दो प्रधान कुल में एक सूर्यवंश है । सूर्यवंशी राजा सूर्य की पूजा करते थे। उनके पूर्वपुरुष सूर्यपुत्र श्राद्धदेव थे। इस वंश में अनेक महान पराक्रमी शासक हरिश्चंद्र, सगर, भगीरथ, दिलीप, रघु आदि हुए। राजा रघु एक यशस्वी शासक थे। अपने शासन काल में उन्होंने राज्य विस्तार किया। विश्वजित नामक दूसरे महायज्ञ में उन्होंने सारी संपत्ति ब्राह्मणों को दान कर दी।

रघु से ‘रघुकुल’ चला। रघु की ग्यारहवीं पीढ़ी के बाद ‘अज’ हुए। सूर्यवंशी राजाओं ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाई थी। अयोध्या का अर्थ है-जिसे जीता न जा सके। अयोध्या एक वैभवशाली राज्य था। अज के पुत्र राजा दशरथ उस समय अयोध्या की गद्दी पर आसीन थे।

राम जन्म 

राजा दशरथ एक महान शासक थे।उनकी तीन पत्नियां थीं-कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी। लेकिन उनके कोई पुत्र नहीं था । पुत्र के अभाव में वे अपने-आपको अधूरा मानते थे। एक दिन राजा दशरथ ने राजगुरु वसिष्ठ के समक्ष अपने मन की पीड़ा व्यक्त की और उनसे कोई उपाय बताने का निवेदन किया।

महर्षि वसिष्ठ ने उन्हें उपाय बताया। महर्षि वसिष्ठ के परामर्श से राजा दशरथ ने ऋषि ऋष्यश्रृंग से निवेदन किया कि वे उनके लिए पुत्रकामेष्टि यज्ञ का आयोजन करें। ऋषि ऋष्यश्रृंग ने पुत्रकामेष्टि यज्ञ का आयोजन किया। जब यज्ञ पूरा हुआ, तो यज्ञवेदी से अग्निदेव प्रकट हुए और राजा दशरथ को खीर के प्रसाद का पात्र देते हुए कहा, “यह प्रसाद अपनी रानियों को खिला देना। तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूरी होगी।”

राजा दशरथ खीर का पात्र लेकर रानी कौशल्या और रानी कैकई को सौंपते हैं। रानी कौशल्या और रानी कैकई अपने-अपने पात्रों से एक-एक निवाला लेकर सबसे छोटी रानी सुमित्रा को खिला देती हैं। इस खीर के प्रभाव से कुछ समय बाद राजा दशरथ के घर में चार पुत्रों का जन्म होता है।

रानी कौशल्या सबसे बड़े पुत्र राम को जन्म देती है। उसके कुछ ही समय बाद ही रानी कैकई राजा दशरथ के दूसरे पुत्र भरत को जन्म देती हैं। कुछ है घड़ी बीतने के पश्चात रानी सुमित्रा राजा दशरथ के तीसरे और चौथे पुत्र शत्रुघ्न को जन्म देती है।

इस प्रकार पृथ्वी पर बढ़े हुए पाप, अत्याचार को मिटाने के लिए भगवान नारायण स्वयं राजा दशरथ के पहले पुत्र श्री राम के रूप में जन्म लेते हैं। भगवान विष्णु के राम अवतार का साथ देने के लिए शेषनाग लक्ष्मण के अवतार में जन्म लेते हैं। तथा उनके साथ ही भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र भारत के अवतार में जन्म लेते हैं तथा शत्रुघ्न भगवान विष्णु के शंख शैल के अवतार होते है।

( कैसे हुआ था हनुमान जी का जन्म ?)

गुरुकुल

शिक्षा पूर्ण कर जब राम अयोध्या लौटे, तब एक दिन ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ के पास पहुंचे और अपनी समस्या बताई। उन्होंने कहा, “वन में स्थित हमारे आश्रमों को राक्षस विध्वंस कर रहे हैं। वे हमें यज्ञ करने से रोकते हैं और हमारे युवा ऋषि-मुनियों को परेशान करते हैं। हमारी संस्कृति पर संकट आ गया है।

कृपा कर आप अपने दो पुत्र राम और लक्ष्मण यज्ञादि के रक्षार्थ हमें प्रदान करें। दशरथ तैयार नहीं हुए, क्योंकि उनका विचार था कि राजकुमारों ने अपनी शिक्षा आश्रम में रहकर प्राप्त कर ली और अब उन्हें राजमहल में ही रहकर आगे का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। तब गुरु वशिष्ठ ने उन्हें समझाया – राजन! इन्हें विश्वामित्र के साथ भेज दीजिए, क्योंकि व्यावहारिक ज्ञान उन्हें उनसे ही प्राप्त होगा।

दशरथ ने राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेज दिया और राक्षसों का दमन कर उन्होंने अपनी शिक्षा की व्यावहारिकता ग्रहण की। सार यह है कि किताबी ज्ञान व्यावहारिक ज्ञान तक पहुंचकर ही पूर्णता पाता है। इसलिए अपनी संतानों को सैद्धांतिक शिक्षा के साथ व्यावहारिक शिक्षा भी दें।

सीता स्वयंवर की कथा

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मिथिला नरेश राजा जनक ने अपनी पुत्री सीता के विवाह हेतु स्वयंवर रचाया था। राजा जनक सभी को शर्त बताते हुए कहते है, आप सभी राजाओं का मेरी पुत्री सीता के स्वयंवर में स्वागत है। आज इस स्वयंवर को जीतने की शर्त यह है कि जो भी महारथी सामने रखें भगवान शिव के पिनाक धनुष को उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ाएगा उसी से मेरी पुत्री सीता का विवाह संपन्न होगा।

अतः आप सभी से अनुरोध है कि एक-एक करके आए और भगवान शिव के इस धनुष को उठाकर और उस पर प्रत्यंचा चढ़ा कर अपने बलाबल तथा शक्ति का परिचय दें। राजा जनक की यह घोषणा सुनकर सभी राजा एक-एक करके आते हैं और धनुष को उठाने का प्रयास करते हैं। लेकिन भगवान शिव के उस धनुष को उठाना या प्रत्यंचा चढ़ाना तो दूर कोई भी राजा महाराजा उस धनुष को हिला तक नहीं पाया।

लक्ष्मण जी को आया क्रोध

बहुत समय बीत जाने के बाद भी जब कोई राजा उस धनुष को हिला नहीं पाया तो महाराजा जनक को क्रोध आ गया। उन्हें लगने लगा कि कोई भी इस शिव धनुष को उठा नहीं पाएगा और उनकी पुत्री सीता अविवाहित ही रह जाएंगी। यही सोचकर उन्होंने वहां उपस्थित सभी राजाओं की निंदा करने शुरू कर दी कि उनमें से कोई भी लायक पुरुष नहीं है। जो शिव धनुष का उठा सके।

राजा जनक की बातों से लक्ष्मण जी का क्रोध उठ खड़ा हो जाता है, और उन्हें यह अपमान समझ आता है कि यह श्रीराम और रघुकुल का अपमान है। वे राजा जनक को ललकारते हैं कि उनके और श्रीराम की सभा में होते हुए उन्हें अयोग्य कैसे कह सकते हैं। इस पर ऋषि विश्वामित्र लक्ष्मण को शांत कराते हैं और श्रीराम से कहते हैं कि धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाएं।

श्रीराम विनम्र भाव से ऋषि विश्वामित्र को प्रणाम करते हुए शिव धनुष की ओर बढ़ते हैं, तभी वहां मौजूद राजा उनका मजाक उड़ाने लगते हैं। उनकी उम्र के बारे में कहा जाता है कि उस समय भगवान राम की आयु लगभग 16 से 17 वर्ष की थी। इसलिए सभी राजा उन्हें “लो, अब चिड़िया पहाड़ उठाने को चली है” बोलकर उनका मजाक उड़ा रहे थे।

श्रीराम ने तोड़ा शिव धनुष

परंतु भगवान विष्णु के अवतार, श्री राम, ने एक अद्वितीय रूप से शिव धनुष का आदर किया, और उन्होंने केवल अपने एक हाथ से ही उसे उठा लिया। इस दृश्य को देखकर सभी उपस्थित राजा हैरान हो गए। तब श्री राम ने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा कर उसकी डोरी खींची, जिससे धनुष टूट गया।

इसके बाद राजा जनक ने ऋषि विश्वामित्र को बधाई दी और उनका स्वागत किया, और फिर श्री राम और देवी सीता के विवाह के बारे में पूछा। ऋषि विश्वामित्र ने राजा जनक को बताया कि यह विवाह शिव धनुष के अधीन हुआ था, और जब धनुष टूट गया तो विवाह हो गया, लेकिन फिर भी आपको कुल के रीति और रिवाज के अनुसार आगे का कार्यक्रम बनाना चाहिए।

ऋषि विश्वामित्र के आदेश पर जनकपुरी से राजा दशरथ के पास संदेश भेजा जाता है। इसके बाद, दोनों परिवारों के समझौते के बाद, राजा दशरथ के चार पुत्रों का विवाह राजा जनक की चार पुत्रियों से तय किया जाता है। इसमें श्रीराम का विवाह देवी सीता से, भरत का मान्धवी से, लक्ष्मण का उर्मिला से, और शत्रुघ्न का श्रुतिकीर्ति से किया जाता है। इसके बाद राजा दशरथ का एकमात्र सपना था कि उनका विशेष पुत्र राम को अयोध्या का राजा बनाया जाए।

राम को वनवास एवं भरत का राज्याभिषेक

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राजा दशरथ ने अपने कुल गुरु वशिष्ठ से विमर्श करके राम का राज्याभिषेक निश्चित किया। राम के राज्याभिषेक के लिए तैयारियां शुरू कर दी गई तथा पूरी अयोध्या नगरी की जनता अपने नए राजा को पाने के लिए उत्साहित थे। श्री राम हमेशा से ही जनता तथा अपने परिवार जन के प्यारे थे। लेकिन शायद नियति को कुछ और ही मंजूर था ,जिस वजह से राम की सौतेली माता राजा दशरथ की दूसरी पत्नी महारानी केकई की दासी मंथरा ने उनको उकसाया।

मंथरा की चाल

मंथरा ने रानी कैकई के मन में यह भ्रम पैदा किया कि राजा दशरथ उनके पुत्र भरत को ननिहाल भेज कर श्री राम को राजा बनाने के प्रयत्न कर रहे हैं। तब मंथरा ने कहा कि वह राम की जगह अपने पुत्र भरत को अयोध्या का राजा बनाए। तुम्हारे पास अभी भी समय है तुम चाहो तो राम की स्थान पर अपने पुत्र भरत को अयोध्या का राजा बना सकती हो।

प्राण जाये पर वचन न जाये

रानी कैकई को राजा दशरथ द्वारा दिए गए दो वरदान का स्मरण हो आया जो उन्होंने देवासुर संग्राम में रानी केकई को उनके युद्ध में साथ देने के लिए दिए थे। तब रानी कैकई ने राजा दशरथ को बोला कि वह समय आने पर अपने दोनों वरदान उनसे मांग लेंगी। तब रानी कैकई ने मंथरा के कुविचारों से भ्रमित होकर राजा दशरथ से अपने दोनो वर मांगती है जिसमें वह पहले वरदान में यह मांगती है कि राम को 14 वर्ष का वनवास दिया जाए।

जिसमें राम 14 बरस तक वन में रहेगा और राज्य की किसी भी वस्तु का उपयोग नहीं कर सकेगा। दूसरे वचन में रानी कैकई राजा दशरथ से अपने पुत्र भरत को अयोध्या का राजा बनाने की मांग करती है। अपने वनवास के अंतिम वर्षों में श्री राम, लक्ष्मण और सीता दंडक वन में गोदावरी नदी के किनारे पर पंचवटी स्थान पर अपने रहने के लिए कुटिया बनाते हैं। और वहीं पर अपने वनवास का बाकी समय बिताते है।

श्री राम एवं लक्ष्मण का शूर्पणखा से सामना

एक बार जब श्रीराम अपने आंगन में बैठे ध्यान कर रहे थे तब सूर्पनखा नामक राक्षसी वहां पर आ जाती है। सूर्पनखा वास्तव में लंकापति रावण की बहन थी। सूर्पनखा ध्यान में बैठे श्री राम के सुंदर स्वरूप को देखकर उन पर मोहित हो जाती हैं । वह एक सुंदर रूपवती नारी का रूप धारण करके श्री राम के पास पहुंचकर उनसे विवाह का प्रस्ताव रखती है।

श्री राम बड़े ही विनम्र भाव से उसके प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं और कहते हैं कि वह अपनी पत्नी सीता को आजीवन एक विवाह में रहने का वचन दे चुके हैं।

उस समय लक्ष्मण जी वन से लकड़ियां एकत्रित करने के लिए गए हुए थे और वह भी आ जाते हैं जिन्हें देखकर शूर्पणखा एक बार उन पर भी मोहित हो जाती है। शूर्पणखा ने अपने साथ विवाह का वही प्रस्ताव लक्ष्मण जी के समक्ष भी रखा। तब लक्ष्मण जी उनको बोलते हैं कि उनके बड़े भाई श्री राम के होते हुए वह उन के योग्य नहीं हैं।

सूर्पनखा के जिद्द को देख कर राम जी ने लक्ष्मण को इशारा किया और लक्ष्मण जी ने सूर्पनखा की नासिका काट दी , इस घटना से सूर्पनखा बहुत क्रोधित हो गयी और खर – दूषण से मदद ली।

परन्तु ,खर दूषण के वध के पश्चात जब सूर्पनखा का बदला पूरा नहीं हुआ तो वह अपने बड़े भाई तथा त्रिलोक अधिपति लंकापति रावण के पास जा पहुंची। और न्याय की दुहाई देने लगी। उसने वही बात लंकापति रावण के समक्ष दोहराई कि राम लक्ष्मण ने पंचवटी में उसका अपमान किया और खर दूषण को उसकी पूरी सेना सहित नष्ट कर दिया है।

आप जाकर उनसे मेरा बदल लीजिए तथा राम की सुंदर पत्नी सीता को अपहरण करके ले आइए। रावण जो कि उस समय त्रलोक विजेता था इसलिए उसे अपनी शक्तियों पर बहुत अहंकार था। सूर्पनखा की बातें सुनकर रावण ने अपने अहम को और पोषित किया और कहा कि किसी साधारण मानव का ऐसा दुस्साहस जिसने हमारी बहन का अपमान किया वह निश्चित ही मृत्यु के लायक है और रावण के हाथों दंड पाने का अधिकारी है।

सीता हरण

मैं अवश्य ही राम की रूपवती पत्नी सीता का अपहरण कर लूंगा तथा अपनी रानी बना लूंगा। सीता हरण के पश्चात जब राम और लक्ष्मण अपनी कुटिया में लौटते हैं तो सीता माता उनको नहीं मिलती। दोनों भाई समझ जाते हैं कि यह अवश्य ही किसी असुर की चाल थी। दोनों भाई सीता को ढूंढते हुए दर-दर भटकने लगते हैं।

काफी देर तक वन में भटकने के बाद उनको गिद्ध जटायु घायल अवस्था में पड़े हुए मिलते हैं। जटायु श्री राम लक्ष्मण को सीता हरण का सारा वृतांत बताता है कि देवी सीता को रावण नाम का असुर हरण करके दक्षिण दिशा की तरफ ले गया है।

जटायु कहता है कि हे राम, तुम्हारे पिता दशरथ मेरे मित्र थे इसलिए तुम्हारी पत्नी सीता मेरी मेरी पुत्र वधु के समान थी जिसकी रक्षा के लिए मैंने अपने जी जान से रावण से युद्ध किया लेकिन आखिर में रावण ने अपनी तलवार से मेरा एक पंख काट दिया जिससे मैं संतुलन खोकर नीचे गिरा और चाहकर भी पुत्री सीता को उस आताताई से छुड़ा नही पाया। इतना कहकर गिद्ध जटायु अपने प्राण त्याग देता है।

श्री राम जी एवं हनुमान जी की भेंट

सीता माँ की खोज करते करते राम जी एवं लक्ष्मण सुग्रीव से मिलने पहुँचते है।  वह पर हनुमान जी ब्राह्मण पंडित का रूप धारण करके श्री राम और लक्ष्मण के पास आते  हैं। वहां आकर हनुमान जी राम और लक्ष्मण से पूछते हैं कि आप कौन हैं ? अपना परिचय दीजिये, तब लक्ष्मण जी भी हनुमान जी से कहते हैं कि हमें महाराज सुग्रीव के पास जाना है।

हनुमान जी उनसे पुनः पूछते है , आपको सुग्रीव के पास क्यों जाना है क्योंकि मैं उनका कुल पुरोहित हूँ आप मुझे बताइए?

बहुत देर तक जब हनुमान जी और लक्ष्मण जी बहस कर रहे थे की पहले वे एक दूसरे के सवालों का उत्तर दे। अतः अंत में लक्ष्मण जी बताते है की हम अयोध्या के राजकुमार है, मेरा नाम लक्ष्मण है और ये में बड़े भाई श्रीराम   है।

श्री राम का नाम सुनते ही हनुमान जी के मन में अपने आराध्य श्री रामचंद्र की छवि उभर आती है, जिनकी वे वर्षों से भक्ति करते आ रहे हैं। अब वही श्री रामचंद्र उनके सामने खड़े हैं। श्री राम का परिचय पाकर हनुमान जी अपनी अनजानी चपलता के लिए क्षमा याचना करते हैं और भावुक होकर अपना परिचय देते हैं।

हनुमान जी अपने वास्तविक रूप में आकर कहते है, हे राम, मैं आपका परम भक्त पवन पुत्र हनुमान हूं और सुग्रीव जी के आदेश पर आपको उनके लिए खतरा मानकर आपका परिचय पाने के लिए वेश बदलकर आया था। तब बातों ही बातों में श्री राम और लक्ष्मण जी भी अपनी यात्रा का सारा वृत्तांत हनुमान जी को बताते है कि उनको माता शबरी ने भेजा था और वे दोनो सुग्रीव से मित्रता करने आए हैं।

रावण द्वारा सीता के हरण की बात सुनकर हनुमान जी श्री राम और लक्ष्मण को सुग्रीव की कथा सुनाते हैं। वे बताते हैं कि सुग्रीव की पत्नी भी उनके भाई द्वारा उनसे छीन ली गई थी, इसलिए वे आपकी पीड़ा को समझ सकते हैं। इससे आप दोनों एक-दूसरे के लिए कल्याणकारी सिद्ध होंगे।

रावण को शांति प्रस्ताव पर विचार करने के लिए एक रात का समय देकर युवराज अंगद वापस आ जाते हैं। रावण के दरबार में हुई सभी गतिविधियों के कारण लंका के सभी प्रियजन सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि श्री राम का एक दूत हनुमान पूरी लंका को जला कर चला गया था तथा दूसरा दूत अंगद सभी योद्धाओं को चुनौती देकर चला गया लेकिन कोई उसकी चुनौती का सामना नहीं कर पाया और वह पूरी सभा को लज्जित करके चला गया।

रावण की सेना का एक महत्वपूर्ण योद्धा वज्रमुष्टि बड़ी निर्दयता से वानर सैनिकों को कुचलता हुआ रणभूमि में विचरण कर रहा था। उसे देखकर सुग्रीव उसके सामने आकर उसे रोक लेता है और अपने साथ युद्ध करने के लिए ललकारता है। चुनौती स्वीकार करके वज्रमुष्टि सुग्रीव से युद्ध करने लगता हैं और दोनों में भीषण युद्ध छिड़ जाता है।

दोनों गदा से एक दूसरे पर प्रहार करने लगते हैं बहुत देर तक गदा युद्ध करने यह बात दोनों मल युद्ध करने लगते है। मल युद्ध में सुग्रीव बहुत कुशल थे इसलिए उन्होंने कुछ ही समय में वज्रमुष्टि को पराजित कर दिया । हर हर महादेव का नारा लगाते हुए सुग्रीव ने वज्रमुष्टि को उठाया और दूर फेंक दिया जिस कारण वज्रमुष्टि का अंत हो गया । ऋषभ जामवंत श्रीराम को सुग्रीव द्वारा वज्रमुष्टि के वध की सूचना देते है।

लंका युद्ध

अपने धनुष की प्रत्यंचा की डंकारा बजाते हुए रावण, श्रीराम को ललकारता है और कहता है कि केवल दिव्य रथ होने से कोई युद्ध नहीं जीत जाता, उसके लिए अपना बाहुबल भी दिखाना पड़ता है। यह कहकर रावण श्रीराम पर बाण चला देता है इसके उत्तर में श्री राम भी बाण चलाते हैं।

दोनों महाशक्तिशाली योद्धाओं में भीषण युद्ध छिड़ जाता है। बहुत देर तक युद्ध चलने के बाद रावण अपने रथ को आकाश में ले जाता है और ऊपर से ही श्री राम पर तीरों की बौछार करता है। यह देखकर श्री राम भी अपने सारथी मातले को कहते हैं कि तुम भी रथ को आकाश में ले चलो। मातले श्री राम के रथ को भी आकाश में रावण के रथ के समकक्ष ले जाता है । फिर से दोनों एक दूसरे पर बाणों की बौछार करने लगते हैं।

बहुत समय तक जब कोई परिणाम नहीं निकलता तो श्रीराम अपने दिव्यास्त्र से रावण का मस्तक काट देते हैं। लेकिन यह क्या, रावण का मस्तक काटते हैं ही उसके धड़ पर दूसरा मस्तक पैदा हो गया। यह देखकर श्रीराम भी आश्चर्य में पड़ जाते हैं और वह फिर से अपना एक दिव्यास्त्र रावण पर चलाते हैं जिससे रावण का मस्तक फिर से कट जाता है।

मस्तक कटते ही रावण का दूसरा मस्तक फिर से आ जाता है और रावण जोर-जोर से हंसने लगता है। यह सब देखकर श्रीराम थोड़े विचलित होने लगते हैं। और वह बारंबार रावण पर दिव्यास्त्र चलाते हैं जिनसे रावण का मस्तक कट के गिर जाता है लेकिन जितनी बार भी रावण का मस्तक कटता है उतनी ही बार एक नया मस्तक वहां पर उग जाता है।

अंत में श्री राम अपना महाशक्तिशाली महा अस्त्र साध के रावण पर चला देते हैं। वह तीर जाकर रावण की नाभि पर लगता है जिससे रावण की नाभि में स्थित सारा अमृत नष्ट हो जाता है। तब श्री राम एक और दिव्यास्त्र मंत्र उपचार करके रावण पर चला देते हैं। वह तीर लगते ही रावण धराशाई हो जाता है और श्रीराम, श्रीराम कहता हुआ आकाश से लुढ़कता हुआ भूमि पर आकर गिरता है और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । और इस प्रकार असुरराज, लंकापति, तथा त्रिलोकाधिपति रावण का अंत हो जाता है।

सीता- राम की अयोध्या वापसी

रावण का अंत होने के बाद श्री राम विभीषण को यह आदेश देते हैं कि अपने जेष्ठ भ्राता लंकापति रावण का विधिवत अंतिम संस्कार करें। रावण का दाह संस्कार करने के बाद श्री राम के कहने पर लक्ष्मण जी लंका में जाकर विधिवत विभीषण का लंका के राजा के रूप में राज अभिषेक करते हैं। लंका का राजा बनने के बाद विभीषण जी श्री राम की सेवा में आते हैं जहां श्री राम विभीषण का अभिनंदन करते हैं और उनसे कहते हैं कि अब वह सीता जी को पूर्ण सम्मान के साथ उनके पास पहुंचा दें।

अग्नि -परीक्षा

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जब माता सीता पालकी से नीचे उतरती हैं तो श्री राम की तरफ बढ़ती हैं। देवी सीता को अपने तरफ आता देखकर श्री राम उन्हें अग्नि की तरफ इशारा करते हैं । अपने पति श्रीराम का यह संकेत सीता जी समझ जाती हैं और अग्नि परीक्षा देने के लिए अग्नि में जलती चिता के बीच बैठ जाती है ।

लेकिन सब कुछ जलाकर राख कर देने वाली अग्नि माता सीता को तनिक भी हानि नहीं पहुंचा पाती। अग्नि में भी माता सीता को सकुशल देखकर वहां पर उपस्थित सभी को माता सीता के पवित्रता और पतिव्रत धर्म का साक्ष्य मिल जाता है और वे सभी उन्हें नमस्कार करते हैं। अग्निपरीक्षा से गुजरने के बाद माता सीता श्रीराम के समक्ष आकर उनसे मिलती है।

यहां सब देखकर श्रीराम, के पिता राजा दशरथ स्वर्ग लोक से आते हैं और श्रीराम, सीता और लक्ष्मण को आशीष देते हैं। इस सब के बाद श्री राम को यह चिंता होने लगती है। क्योंकि भरत में श्री राम के चरणों की शपथ लेकर कहा था कि यदि वनवास की अवधि पूर्ण होने के बाद एक दिन भी अगर देर हुई तो वह अग्नि समाधि ले लेंगे। और उनके 14 वर्ष के वनवास की अवधि समाप्त होने में कुछ ही दिन शेष थे ।

अपनी चिंता का कारण श्री राम ने जब विभीषण जी को बताया तो विभीषण जी ने उन्हें इसका समाधान देते हुए रावण के पुष्पक विमान का जिक्र किया। तब विभीषण ने बताया कि रावण का पुष्पक विमान जो उसने स्वयं कुबेर से छीना था और यह विमान बहुत तीव्र गति से चल सकता है और इच्छा अनुसार अपना आकार बढ़ा या घटा सकता है इसलिए इस पुष्पक विमान में बैठकर आप सभी अयोध्या को प्रस्थान करें ।

जब भगवान राम 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे तो लोगों ने अपने घरों में एवं सम्पूर्ण नगर में घी के दीप जलाकर सीता – राम एवं लक्ष्मण का  स्वागत किया था। हम आज भी राम जी के अयोध्या वापसी को त्यौहार के रूप में घरों में घी के दीपों की रौशनी करके दीपावली मनाते हैं। दीपावली का पर्व हमें बुराई पर अच्छाई की जीत की शिक्षा देता है।

Ramayana का सार :

वास्तव में Ramayana हमारे जीवन मूल्यों का आधार है जिसके आदर्शों पर एक मनुष्य को चलना चाहिए। इसमें श्रीराम के जीवन कथा को दर्शाया गया है जिसमें वह अपने कर्म के बंधनों में बंध कर कैसे दुख उठाते हुए भी धर्म के मार्ग पर चलते हैं जिसमें अंत में उनकी विजय होती है।

Ramayana  में  यह दिखाया गया है कि स्वयं भगवान को भी एक वनवास के रूप में कष्ट भोगने पड़े थे। क्योंकि यह सभी मनुष्य के कर्मों का परिणाम होता है जो उन्हें भोगने ही पड़ते हैं। सर्वशक्तिमान होते हुए भी भगवान विष्णु ने मनुष्य के रूप में जन्म लेकर अहंकारी और अत्याचारी असुर रावण का वध किया।

जिसमे सर्व समर्थ होते हुए भी उन्होंने वानर, भालू की सेना एवं गिलहरी की सहायता ली। इससे यह भी शिक्षा मिलती है कि चाहे कोई कितने भी ऊंचे पद पर हो या कितना भी बलवान एवं पराक्रमी क्यों ना हो उसे अपने से छोटे और तुच्छ प्राणीयों को भी अपने साथ मिलाकर चलना चाहिए तो उसकी विजय निश्चित होती है, घमंड करने से सिर्फ नाश होता है इसका साक्षात् उदाहरण है रावण का विनाश। रावण इतना विद्वान एवं पराक्रमी था परन्तु घमंड ने उसका विनाश कर दिया ।

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