bhishma pitamah

Inspiring Tale of Bhishma Pitamah : A Mahabharata Legend Biography || भीष्म पितामह || Jeevani || Nibandh || Biography

Bhishma Pitamah की कहानी महाभारत के महत्वपूर्ण प्रसंगों में से एक है। यहाँ हम भीष्म पितामह के जन्म एवं जीवन से जुडी घटनाओं के बारे में जानेंगे।

शांतनु एवं गंगा जी की भेंट

राजा शांतनु एक बार गंगा नदी के किनारे टहल रहे थे जब उन्होंने एक अत्यंत सुंदरी स्त्री को देखा। राजा उससे प्रभावित हुए और उसके पास जाकर पूछा, “हे सुंदरी, तुम कौन हो? और इस नदी के किनारे क्या कर रही हो?” तुम मुझे बहुत पसंद आयी, क्या तुम मुझसे विवाह करोगी ?

वह सुंदरी गंगा देवी थीं। उन्होंने राजा शांतनु से कहा, “हे राजन, मैं गंगा हूँ। यदि आप मुझसे विवाह करना चाहते हैं तो आपको मेरी एक शर्त माननी होगी। आप कभी भी मुझसे यह नहीं पूछेंगे कि मैं क्या कर रही हूँ। यदि आपने मुझसे यह प्रश्न पूछा, तो मैं आपको छोड़कर चली जाऊँगी।”

राजा शांतनु ने यह शर्त मान ली और दोनों का विवाह हो गया। गंगा और शांतनु का जीवन सुखमय चल रहा था और उन्हें कई संतानें हुईं। परंतु, हर बार जब कोई संतान जन्म लेती, गंगा उसे नदी में बहा देतीं। राजा शांतनु ने गंगा से यह प्रश्न कभी नहीं किया कि वे ऐसा क्यों कर रही हैं, क्योंकि उन्होंने वचन दिया था।

आठवीं संतान के जन्म के समय राजा शांतनु से रहा नहीं गया और उन्होंने गंगा से पूछ लिया, “हे गंगा, तुम हमारे बच्चों को क्यों नदी में बहा रही हो?” गंगा ने उत्तर दिया, “हे राजन, आपने अपना वचन तोड़ दिया। अब मैं आपको सबकुछ बताती हूँ। ये आठों बच्चे वसुओं के अवतार हैं। इन्होंने एक ऋषि का श्राप पाया था कि वे मनुष्य रूप में जन्म लेंगे। परंतु, मैंने उन्हें इस श्राप से मुक्त करने के लिए नदी में बहा दिया। अब आठवीं संतान जीवित रहेगी और यह आपका पुत्र बनेगा।”

गंगा ने अपने आठवें पुत्र को राजा शांतनु के हवाले किया और कहा, “यह बच्चा महान योद्धा बनेगा और इसका नाम देवव्रत होगा।” इसके बाद गंगा अपने पुत्र देवव्रत को लेकर चली गईं और उसे शिक्षा देने लगीं। गंगा ने देवव्रत को वेदों, शास्त्रों और युद्ध कौशल की शिक्षा दी। जब देवव्रत युवा हो गए, तब गंगा उन्हें राजा शांतनु के पास वापस ले आईं।

देवव्रत ने अपनी महान शिक्षा और योग्यता से सबको प्रभावित किया और उन्हें ‘भीष्म’ नाम मिला। भीष्म पितामह ने अपने पिता के सम्मान में ब्रह्मचर्य का व्रत लिया और कौरवों तथा पांडवों के इतिहास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

इस प्रकार गंगा और भीष्म पितामह की कहानी हमें यह सिखाती है कि वचन और सम्मान का पालन कितना महत्वपूर्ण होता है और कैसे माता-पिता अपनी संतानों के लिए सर्वोच्च बलिदान देने के लिए तैयार रहते हैं।

क्यों किया गंगा जी ने अपने 7 बच्चों को नदी में प्रवाहित ????

गंगा देवी ने अपने पहले सात बच्चों को जन्म के बाद तुरंत ही नदी में प्रवाहित कर दिया। इसके पीछे एक पुरानी कथा है। गंगा और शांतनु के ये बच्चे असल में आठ वसु थे, जिन्होंने ऋषि वशिष्ठ के शाप के कारण मानव रूप में जन्म लिया था। गंगा देवी ने वसुओं को उनके शाप से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें नदी में प्रवाहित कर दिया।

गंगा देवी द्वारा भीष्म पितामह का पालन-पोषण

गंगा देवी ने शांतनु को यह बताया कि उनके आठवें पुत्र को शाप से मुक्ति नहीं मिली थी और इसलिए उसे जीवित रखा गया। गंगा देवी ने वचन का उल्लंघन होने के बाद शांतनु से विदा ली और देवव्रत (Bhishma Pitamah) को अपने साथ लेकर चली गईं। उन्होंने भीष्म का पालन-पोषण किया और उन्हें वेद, शस्त्र विद्या, और नीति की शिक्षा दी। भीष्म ने परशुराम से युद्ध कला सीखी और वे महान योद्धा बने।

गंगा देवी का भीष्म पितामह को शांतनु को सौंपना

कुछ वर्षों बाद, गंगा देवी ने भीष्म (Bhishma Pitamah) को राजा शांतनु (Shantanu)के पास वापस लाकर सौंप दिया। भीष्म ने अपने पिता की सेवा और उनके राज्य की रक्षा का व्रत लिया। भीष्म पितामह अपने धर्म, कर्तव्य और प्रतिज्ञा के प्रति अटूट निष्ठा के लिए महाभारत में अमर हो गए।

Bhishma Pitamah, Mahabharata के प्रमुख पात्रों में से एक, अपनी वीरता, धर्मनिष्ठा और त्याग के लिए जाने जाते हैं। उनका वास्तविक नाम देवव्रत था, और वे कुरु वंश के प्रतापी राजा शांतनु और गंगा के पुत्र थे। भीष्म पितामह का जीवन भारतीय इतिहास और संस्कृति में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उनका जन्म, उनकी भीष्म प्रतिज्ञा, और उनके जीवन के अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करते हैं।

जन्म और प्रारंभिक जीवन

Bhishma Pitamah का जन्म हिमालय पर्वत के समीप हुआ था। उनके पिता, राजा शांतनु, हस्तिनापुर के राजा थे, और उनकी माता, देवी गंगा, स्वयं गंगा नदी का मानव रूप थीं। देवव्रत का पालन-पोषण गंगा द्वारा ही हुआ, जिन्होंने उन्हें वेद, शास्त्र, युद्धकला, और नीति में प्रशिक्षित किया। गंगा ने अपने पुत्र को शस्त्र विद्या, नीति शास्त्र, और धर्म के ज्ञान में निपुण बनाया। युवा देवव्रत ने परशुराम और बृहस्पति जैसे महान गुरुजनों से शिक्षा प्राप्त की।

देवव्रत का बाल्यकाल अत्यंत स्नेह और संरक्षण में बीता। देवी गंगा ने उन्हें यह सिखाया कि जीवन में धर्म का पालन कितना महत्वपूर्ण है और कैसे एक योद्धा को न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक रूप से भी मजबूत होना चाहिए। उन्होंने देवव्रत को सभी प्रकार की युद्ध कलाओं में प्रशिक्षित किया, जिससे वे एक उत्कृष्ट योद्धा बने। देवव्रत ने अपने गुरुजनों के साथ रहते हुए धर्म, राजनीति, और शासन कला में महारत हासिल की।

क्यों हुआ देवव्रत का नाम Bhishma Pitamah ?????

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देवव्रत का जीवन एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब उनके पिता, राजा शांतनु, मत्स्यगंधा (सत्यवती) नामक मछुआरे की पुत्री से विवाह करना चाहते थे। सत्यवती के पिता ने यह शर्त रखी कि उनकी पुत्री का पुत्र ही हस्तिनापुर का अगला राजा बनेगा। देवव्रत, जो पहले से ही राजगद्दी के उत्तराधिकारी थे, ने अपने पिता के सुख और हस्तिनापुर के भविष्य के लिए एक महान त्याग किया।

राजा शांतनु अपने पुत्र देवव्रत से अत्यधिक प्रेम करते थे। जब राजा ने सत्यवती के पिता की शर्त सुनी, तो वे दुःखी हो गए। देवव्रत ने अपने पिता की व्यथा को समझा और हस्तिनापुर की स्थिरता के लिए एक कठोर प्रतिज्ञा ली। उन्होंने यह प्रतिज्ञा ली कि वे आजीवन ब्रह्मचारी रहेंगे और हस्तिनापुर के सिंहासन का दावा कभी नहीं करेंगे। उनकी इस कठोर प्रतिज्ञा के कारण ही उन्हें ‘भीष्म’ कहा गया, जिसका अर्थ है ‘कठोर प्रतिज्ञा वाला’।

इस प्रतिज्ञा को लेने के बाद, देवव्रत भीष्म कहलाने लगे। यह प्रतिज्ञा केवल उनके व्यक्तिगत जीवन पर ही नहीं, बल्कि पूरे हस्तिनापुर पर भी गहरा प्रभाव डाला। राजा शांतनु ने भीष्म को यह वरदान दिया कि वे अपनी इच्छा से ही मृत्यु को प्राप्त कर सकेंगे। इस प्रकार, भीष्म पितामह ने अपने पिता के सुख और राज्य की भलाई के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया।

भीष्म का योगदान

भीष्म पितामह ने अपनी प्रतिज्ञा के पालन के साथ-साथ हस्तिनापुर की सेवा में अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। उन्होंने कई युद्धों में अपनी वीरता का परिचय दिया और राज्य के मामलों में निष्पक्ष और धर्मनिष्ठ सलाहकार बने रहे। भीष्म ने कुरु वंश के कई राजाओं का शासन देखा और हर परिस्थिति में अपने धर्म और प्रतिज्ञा का पालन किया।

भीष्म का जीवन एक आदर्श योद्धा, आदर्श पुत्र, और आदर्श नागरिक का उदाहरण है। उन्होंने अपने राज्य की सेवा में कभी भी कोई कमी नहीं आने दी। उन्होंने हस्तिनापुर को एक स्थिर और सशक्त राज्य बनाने के लिए अपने जीवन का प्रत्येक क्षण समर्पित कर दिया। भीष्म ने अपनी बुद्धिमत्ता, युद्ध कौशल, और नीति के ज्ञान से राज्य को कई संकटों से उबारा और उसे समृद्ध बनाया।

महाभारत में भीष्म की भूमिका

महाभारत के युद्ध में Bhishma Pitamah का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण था। वे कौरव पक्ष के सेनापति बने, हालांकि वे पांडवों के प्रति भी स्नेह और आदर रखते थे। उन्होंने अपने धर्म और कर्तव्य का पालन करते हुए युद्ध में भाग लिया। भीष्म ने कुरुक्षेत्र के युद्ध में अपने अद्वितीय योद्धा कौशल का प्रदर्शन किया और पांडवों को कई बार पराजित भी किया।

युद्ध के दौरान, भीष्म पितामह ने यह स्पष्ट किया कि वे युद्ध केवल अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए कर रहे हैं, न कि किसी व्यक्तिगत द्वेष के कारण। उनके लिए धर्म सबसे महत्वपूर्ण था, और उन्होंने अपने जीवन के अंतिम क्षण तक अपने धर्म का पालन किया। भीष्म पितामह की युद्ध कला और रणनीति अद्वितीय थी, जिससे कौरव सेना को बहुत फायदा हुआ।

भीष्म की मृत्यु

भीष्म पितामह को इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था, जिसका अर्थ था कि वे अपनी इच्छा से ही मृत्यु को प्राप्त कर सकते थे। युद्ध के दसवें दिन, पांडवों की योजना और शिखंडी के सहयोग से, अर्जुन ने भीष्म पर अनेक बाणों की वर्षा की। भीष्म पितामह बाणों की शय्या पर लेट गए, लेकिन उन्होंने अपनी मृत्यु तब तक स्वीकार नहीं की जब तक कि महाभारत का युद्ध समाप्त नहीं हो गया।

बाणों की शय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह ने अपने अंतिम क्षणों का उपयोग युधिष्ठिर को धर्म, नीति, और राज्यकला के उपदेश देने में किया। उन्होंने युधिष्ठिर को बताया कि एक राजा को अपने प्रजा के प्रति क्या कर्तव्य होने चाहिए और किस प्रकार एक आदर्श राज्य की स्थापना की जा सकती है। उनके उपदेश आज भी नीति शास्त्र में महत्वपूर्ण माने जाते हैं।

युद्ध की समाप्ति के बाद, भीष्म पितामह ने अपनी इच्छा से मृत्यु को प्राप्त किया। उनके देहावसान के साथ ही महाभारत का एक महत्वपूर्ण अध्याय समाप्त हो गया, लेकिन उनके जीवन की गाथा और उनके उपदेश सदियों तक लोगों को प्रेरित करते रहेंगे।

निष्कर्ष

भीष्म पितामह का जीवन त्याग, वीरता, और धर्म की प्रेरक गाथा है। उनकी भीष्म प्रतिज्ञा और महाभारत में उनके अद्वितीय योगदान ने उन्हें भारतीय इतिहास में अमर कर दिया है। उनके जीवन से हमें यह सिखने को मिलता है कि सच्चे धर्म और कर्तव्य का पालन करने में कितनी बड़ी चुनौती होती है, और इसे निभाने का महत्व क्या होता है। भीष्म पितामह की कथा सदियों से भारतीय जनमानस में एक प्रेरणास्त्रोत बनी हुई है और यह हमें हमेशा अपने धर्म और कर्तव्य के प्रति सच्चे रहने की प्रेरणा देती है।

भीष्म पितामह ने अपने जीवन से यह सिद्ध किया कि धर्म और कर्तव्य का पालन जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य है। उनके जीवन के हर पहलू से हमें यह शिक्षा मिलती है कि जब तक हम अपने कर्तव्यों और धर्म का पालन नहीं करते, तब तक जीवन का असली अर्थ समझ में नहीं आता। भीष्म पितामह का जीवन हमें यह प्रेरणा देता है कि चाहे कितनी भी कठिन परिस्थितियाँ क्यों न हों, हमें अपने कर्तव्यों और धर्म का पालन करना चाहिए।

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