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Mahabharata के ५ वीर : The Stories of Dronacharya, Abhimanyu, Eklavya, Arjuna, and Karna

The Stories of Dronacharya, Abhimanyu, Eklavya, Arjuna, and Karna from Mahabharata

Mahabharata, भारतीय महाकाव्य, अद्वितीय वीरता, निष्ठा और जीवन के अद्वितीय पाठों से भरा हुआ है। इसमें अनेकों महान पात्र हैं जिन्होंने अपनी वीरता, ज्ञान और बलिदान से इस महाकाव्य को अमर बना दिया। आज हम पांच ऐसे ही पात्रों – द्रोणाचार्य, अभिमन्यु, एकलव्य, अर्जुन और कर्ण – की कहानियों पर दृष्टि डालेंगे। ये कहानियाँ न केवल हमारे मन को झकझोरती हैं बल्कि हमें जीवन के महत्वपूर्ण पाठ भी सिखाती हैं।

द्रोणाचार्य

द्रोणाचार्य महाभारत के सबसे महान गुरुओं में से एक माने जाते हैं। उन्होंने कौरव और पांडव दोनों को शस्त्र विद्या सिखाई। लेकिन उनका जीवन संघर्षों और बलिदानों से भरा हुआ था। द्रोणाचार्य, एक गरीब ब्राह्मण थे जो अपनी पत्नी और बेटे अश्वत्थामा के साथ एक कष्टपूर्ण जीवन जी रहे थे। उन्होंने शिक्षा प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत की और अपने ज्ञान और कौशल से एक महान योद्धा और गुरु बने।

द्रोणाचार्य और द्रुपद बचपन के मित्र थे और एक ही गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त की थी। द्रुपद, पंचाल राज्य के राजा का पुत्र था और द्रोण एक ब्राह्मण परिवार से थे। उन्होंने अपनी मित्रता की यादों को संजोते हुए एक-दूसरे से वादा किया था कि वे हमेशा एक-दूसरे की मदद करेंगे।

बाद में, जब वे बड़े हुए, द्रुपद अपने राज्य का राजा बन गया और द्रोणाचार्य ने कठिन परिस्थितियों का सामना किया। अपने कठिन समय में, द्रोण ने द्रुपद से सहायता की अपेक्षा की और उसकी सहायता के लिए उसके पास गया। परन्तु, राजा बनने के बाद, द्रुपद ने द्रोण को पहचानने से इनकार कर दिया और अपमानित किया। द्रुपद ने यह कहते हुए द्रोण को अपमानित किया कि एक राजा और एक गरीब ब्राह्मण मित्र नहीं हो सकते।

द्रुपद द्वारा इस अपमान से आहत होकर, द्रोण ने प्रतिज्ञा ली कि वह एक दिन द्रुपद को हराएगा और उसका आधा राज्य छीन लेगा। इसके बाद, द्रोण ने हस्तिनापुर जाकर वहाँ के राजकुमारों – कौरवों और पांडवों को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा देना शुरू किया। अपने योग्य शिष्य अर्जुन की सहायता से, द्रोण ने द्रुपद से प्रतिशोध लेने की योजना बनाई।

द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों से कहा कि जो भी द्रुपद को हराकर उसे बंदी बनाएगा, उसे वह गुरुदक्षिणा के रूप में स्वीकार करेगा। पांडवों में से अर्जुन ने यह चुनौती स्वीकार की और द्रुपद को युद्ध में पराजित किया। अर्जुन ने द्रुपद को बंदी बनाकर द्रोणाचार्य के समक्ष प्रस्तुत किया।

द्रोणाचार्य ने द्रुपद से अपना आधा राज्य लेकर उसे अपने अपमान का बदला लिया, लेकिन बाद में आधा राज्य वापस देकर उसे राजा बने रहने दिया। इस प्रकार, द्रोण ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की और अपने अपमान का प्रतिशोध लिया।

इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि मित्रता का सम्मान करना चाहिए और कभी किसी को अपमानित नहीं करना चाहिए, क्योंकि परिस्थितियाँ कभी भी बदल सकती हैं।

द्रोणाचार्य ने कौरवों और पांडवों को शस्त्र विद्या सिखाई, लेकिन उनका स्नेह अर्जुन पर विशेष था। उन्होंने अर्जुन को एक महान धनुर्धर बनाने के लिए बहुत परिश्रम किया। द्रोणाचार्य की शिक्षा और अनुशासन ने अर्जुन को महाभारत के सबसे महान योद्धाओं में से एक बना दिया।

द्रोणाचार्य का जीवन हमें सिखाता है कि सच्चे ज्ञान और शिक्षा का कोई मूल्य नहीं होता। यह हमें अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठा और समर्पण की महत्ता को भी बताता है।

अभिमन्यु

अभिमन्यु, अर्जुन और सुभद्रा का पुत्र था, और उसकी वीरता महाभारत (Mahabharata) में अमर है। वह केवल सोलह वर्ष का था, जब उसने कुरुक्षेत्र के युद्ध में भाग लिया। अभिमन्यु की कहानी वीरता, निष्ठा और बलिदान की मिसाल है।

अभिमन्यु ने चक्रव्यूह की कला अपनी माता के गर्भ में ही सीख ली थी।

अभिमन्यु अर्जुन और सुभद्रा का पुत्र था। एक बार जब सुभद्रा गर्भवती थी, अर्जुन ने अपने पुत्र को गर्भ में ही युद्ध की विभिन्न कलाओं और रणनीतियों का ज्ञान देने का निर्णय लिया। एक रात, जब सुभद्रा सोने की तैयारी कर रही थी, अर्जुन ने चक्रव्यूह की रचना और उसे भेदने की विधि को विस्तार से बताना शुरू किया।

सुभद्रा उस समय ध्यानपूर्वक सुन रही थी और गर्भ में स्थित अभिमन्यु भी इन सब बातों को सुन रहा था। अर्जुन ने चक्रव्यूह में प्रवेश करने और उसे भेदने की पूरी प्रक्रिया बताई। लेकिन जब अर्जुन यह समझा रहे थे कि चक्रव्यूह से कैसे बाहर निकला जाए, सुभद्रा को नींद आ गई और वह सो गई। इस कारण से, अर्जुन की पूरी शिक्षा का अंतिम और महत्वपूर्ण भाग, जो चक्रव्यूह से बाहर निकलने की विधि थी, अधूरी रह गई।

इस प्रकार, अभिमन्यु ने गर्भ में रहते हुए चक्रव्यूह में प्रवेश करने और उसे भेदने की कला सीख ली थी, लेकिन उसे चक्रव्यूह से बाहर निकलने की विधि का ज्ञान नहीं हो सका।

महाभारत के युद्ध के दौरान, जब कौरवों ने चक्रव्यूह की रचना की, तो पांडवों के पास केवल अभिमन्यु ही था जिसे इस चक्रव्यूह में प्रवेश करने और उसे भेदने का ज्ञान था। अभिमन्यु ने वीरता से चक्रव्यूह में प्रवेश किया और कौरव सेना के भीतर लड़ते हुए बहुत से योद्धाओं को पराजित किया। लेकिन अंततः, चक्रव्यूह से बाहर निकलने का ज्ञान न होने के कारण, कौरव योद्धाओं ने उसे चारों तरफ से घेर लिया और वह वीरगति को प्राप्त हुआ।

अभिमन्यु की इस वीरता और बलिदान की कहानी Mahabharata के महानायकत्व और साहस की एक अमर गाथा है।

उसने चक्रव्यूह में प्रवेश करना तो सीख लिया था, लेकिन बाहर निकलने का तरीका नहीं जानता था। कुरुक्षेत्र के युद्ध में, जब कौरवों ने चक्रव्यूह की रचना की, अभिमन्यु ने उसमें प्रवेश किया और अपनी अद्वितीय वीरता से कौरवों के कई योद्धाओं को परास्त किया। लेकिन चक्रव्यूह से बाहर न निकल पाने के कारण वह वीरगति को प्राप्त हुआ।

अभिमन्यु की कहानी हमें सिखाती है कि वीरता और निष्ठा के लिए उम्र की कोई सीमा नहीं होती। उसकी कहानी हर युवा को अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पित रहने और अद्वितीय साहस दिखाने के लिए प्रेरित करती है।

एकलव्य

एकलव्य की कहानी महाभारत (Mahabharata) की सबसे प्रेरणादायक कहानियों में से एक है। वह एक निषाद (शिकारी) का पुत्र था और धनुर्विद्या में महान योद्धा बनना चाहता था। उसने द्रोणाचार्य से शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा जताई, लेकिन द्रोणाचार्य ने उसे इस आधार पर मना कर दिया कि वह क्षत्रिय नहीं था।

लेकिन एकलव्य ने हार नहीं मानी। उसने द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उसकी प्रतिमा के सामने अभ्यास करने लगा। अपनी अटूट निष्ठा और समर्पण से, उसने धनुर्विद्या में अद्वितीय कौशल प्राप्त किया। जब द्रोणाचार्य को उसके कौशल का पता चला, तो उन्होंने एकलव्य से गुरु दक्षिणा के रूप में उसका अंगूठा मांग लिया, जिसे एकलव्य ने बिना किसी संकोच के दे दिया।

एकलव्य की कहानी हमें सिखाती है कि सच्चा समर्पण और निष्ठा किसी भी बाधा को पार कर सकती है। उसकी कहानी आत्म-त्याग और गुरु के प्रति समर्पण की अद्वितीय मिसाल है।

अर्जुन

अर्जुन, पांडवों में से एक, महाभारत का एक केंद्रीय पात्र है। वह द्रोणाचार्य का प्रिय शिष्य था और उसने अपने गुरु से अद्वितीय धनुर्विद्या सीखी। अर्जुन का जीवन वीरता, निष्ठा, और धर्म के मार्ग पर चलने की कहानी है।

अर्जुन की वीरता और निष्ठा की अनेक कहानियाँ हैं। चाहे वह द्रौपदी का स्वयंवर हो, इंद्रप्रस्थ का निर्माण, या कुरुक्षेत्र का महान युद्ध, अर्जुन ने हमेशा अपने कर्तव्यों का पालन किया और अपने धर्म का निर्वाह किया। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया, जिसमें जीवन के गूढ़ रहस्यों और कर्तव्यों का वर्णन है।

अर्जुन की कहानी हमें सिखाती है कि सच्ची वीरता और निष्ठा हमेशा धर्म के मार्ग पर चलती है। उसकी कहानी हर योद्धा और हर व्यक्ति को अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पित रहने और सच्चाई का पालन करने के लिए प्रेरित करती है।

कर्ण

कर्ण की कहानी महाभारत की सबसे दिल को छू लेने वाली कहानियों में से एक है। वह एक सूत पुत्र था, लेकिन उसकी वीरता और उदारता अद्वितीय थी। कर्ण का जीवन संघर्षों और बलिदानों से भरा हुआ था, लेकिन उसने हमेशा अपने धर्म का पालन किया।

कर्ण को जन्म के समय ही उसकी माँ कुंती ने त्याग दिया था।

कर्ण का जन्म कुंती और सूर्य देवता के आशीर्वाद से हुआ था। जब कुंती युवावस्था में थी, तब ऋषि दुर्वासा ने उसे एक मंत्र दिया था, जिससे वह किसी भी देवता को आह्वान करके उनसे संतान प्राप्त कर सकती थी। जिज्ञासा और शक्ति की परीक्षा के लिए कुंती ने इस मंत्र का उपयोग करते हुए सूर्य देवता का आह्वान किया। सूर्य देवता ने प्रकट होकर उसे एक पुत्र प्रदान किया, जो जन्म से ही कवच और कुण्डल धारण किए हुए था। यह पुत्र ही कर्ण था।

कुंती उस समय अविवाहित थी और समाज में अविवाहित माँ बनना एक बड़ा कलंक माना जाता था। इस डर से कि समाज और परिवार कैसे प्रतिक्रिया देंगे, कुंती ने अपने नवजात पुत्र कर्ण को त्यागने का निर्णय लिया। उसने कर्ण को एक बक्से में रखकर गंगा नदी में बहा दिया।

नदी में बहते हुए बक्से को अधिरथ नामक एक सारथी और उसकी पत्नी राधा ने पाया। उन्होंने कर्ण को अपने पुत्र के रूप में स्वीकार किया और उसका पालन-पोषण किया। इस प्रकार कर्ण एक सारथी परिवार में बड़ा हुआ, जबकि वह वास्तव में एक क्षत्रिय राजकुमार था।

कर्ण ने अपने बचपन और युवावस्था में कई कठिनाइयों का सामना किया, लेकिन अपनी अद्वितीय क्षमताओं और साहस के कारण वह महान योद्धा बना। लेकिन उसे हमेशा यह आभास रहा कि वह एक निम्न जाति का है, जिस कारण उसे समाज में सम्मान नहीं मिलता था।

कुंती ने कर्ण को त्यागते समय उसकी सुरक्षा के लिए सूर्य देवता से यह वरदान मांगा था कि कर्ण का कवच और कुण्डल उसे अद्वितीय सुरक्षा प्रदान करेंगे। यही कारण था कि कर्ण युद्ध में अजेय योद्धा बन गया।

कर्ण की कहानी Mahabharata में त्रासदी और वीरता की एक प्रमुख कथा है, जो समाज के पूर्वाग्रह और व्यक्तिगत संघर्षों को उजागर करती है। कर्ण का त्याग, संघर्ष, और अंततः अपने भाइयों के विरुद्ध युद्ध करना महाभारत की कथा में गहन मानवीय भावनाओं और नाटकीयता का प्रतीक है।

उसे एक सूत ने पाला और बड़ा किया। लेकिन उसकी अद्वितीय प्रतिभा और वीरता ने उसे महान योद्धाओं की श्रेणी में ला खड़ा किया। कर्ण ने हमेशा अपने वचनों का पालन किया और अपने मित्र दुर्योधन के प्रति निष्ठा रखी। कुरुक्षेत्र के युद्ध में, उसने पांडवों के विरुद्ध युद्ध किया और वीरगति प्राप्त की।

कर्ण की कहानी हमें सिखाती है कि सच्ची वीरता और निष्ठा हमेशा धर्म का पालन करती है, चाहे परिस्थिति कितनी भी कठिन क्यों न हो। उसकी कहानी आत्म-सम्मान, उदारता और सच्चे मित्रता की अद्वितीय मिसाल है।

निष्कर्ष

Mahabharata के ये पाँच पात्र – द्रोणाचार्य, अभिमन्यु, एकलव्य, अर्जुन और कर्ण – अपनी अद्वितीय वीरता, निष्ठा और बलिदान की कहानियों से हमें प्रेरित करते हैं। उनकी कहानियाँ हमें सिखाती हैं कि सच्चा ज्ञान, समर्पण, और धर्म का पालन ही जीवन का सच्चा मार्ग है। इन पात्रों की कहानियाँ न केवल महाभारत को अमर बनाती हैं, बल्कि हमें जीवन के महत्वपूर्ण पाठ भी सिखाती हैं। इनकी वीरता और निष्ठा की कहानियाँ सदैव हमारे हृदयों में जीवित रहेंगी और हमें प्रेरित करती रहेंगी।

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